द्वितीय भाग
शोध आवश्यकता के बारे में चर्चा करते करते हम आज दूसरे भाग में पहुँच गए हैं पिछले भाग में एक सामूहिक रूप से एक संयुक्त रुप से शोध की क्या अपेक्षा है इस पर विचार प्रस्तुत किए थे और आज हम रोग निर्धारण और निदान तक सीमित रहेंगे इसी क्षेत्र में हम ज्योतिष की दृष्टि से किस प्रकार का शोध कर सकते हैं अथवा किस प्रकार के शोध करने की वहाँ पर अपेक्षा है। आशीर्वचन में वैदिक आशीर्वचन में हम एक मन्त्र को बहुत सरल रूप से अर्थात् अति प्रसरित जिसका प्रचार प्रसार अत्यधिक हुआ है उस प्रकार के एक मन्त्र को हम जानते है वह है –
शतामानं भवति शतायुः पुरषश्शतेन्द्रिय आयुष्येवेन्द्रिये प्रतितिष्ठति॥
यहाँ शतमानं भवति शतायुष्पुरुषः यहाँ एक माने सौ वर्ष का जो जिक्र आया है जो बात जो उल्लेख देखने को मिलता है इसी प्रकार से ज्योतिष के ग्रन्थों में मानव की जो आयु 120 वर्ष जो निर्धारित की गई है इसी के आधार पर दशाओं का जो मान 120 वर्ष निर्धारित किया गया था वे स्थितियां कब थीं यदि इसको जानने का या पहचानने का जब हम प्रयास करते हैं तो पिछले 2000 वर्षों में तो नहीं था यदि हम 2000 वर्ष पहले चलें तो उस समय की आयु अर्थात् एक औसतन आयु था मानव का 16 वर्ष का इसको आज के विज्ञान में लोग लाइफ एक्सपेन्टेन्सी बताते हैं तो लाइफ एक्सपेन्टेसी उस समय में 16 वर्ष का था धीरे धीरे धीरे घीरे बढते आया और ये महात्मा गाँधी जब जन्म लिए थे आज से 150 वर्ष पहले उस समय में यह लाइफ एक्सपेन्टेन्सी केवल 26 साल का था तो फिर ये शतमानं भवति यह बात कब की है और मानव का उम्र जो तय किया गया था 120 वर्ष ये कब के थे वास्तव में ये थे या नहीं थे। एसे बहुत प्रश्न हमारे चारों ओर माने घूमने लग जाते हैं।
अब लूईस पास्चर के बाद जब कीटाणु सम्बन्ध रोगों का कारण कीटाणु हैं इस प्रकार के एक सिद्धान्त कीटाणु सिद्धान्त जब उन्होंने सामने ले आए उसके बाद आधुनिक विज्ञान ने जो मोड़ लिया और जिस प्रकार से चिकित्सा विज्ञान विकसित हुआ उस प्रकार से शतमानं भवति अथवा 120 वर्ष का आयु है इस प्रकार की बातों पर उतना ध्यान नहीं गया । प्रायः ग्रन्थों में जो बात लिखित है साहित्य में जो बात देखने को मिलती है श्रुति परम्परा में जो बातें समझ में आती है तो उनके आधार पर अब हम कहते हैं कि इस प्रकार की स्थिति थी क्या कभी थी ऐसी स्थिति या एक कल्पना मात्र है ये भी एक शोध्य विषय है। यहाँ किसी परम्परा की बात नहीं है किसी सम्प्रदाय की बात नहीं है और किसी धार्मिक आस्था की बात नहीं है शोध करते वक्त हमें अपने ऊपर प्रश्न करना ही पड़ता है और हमें शून्य तक पहुँचना ही पड़ता है और शून्य की अवस्था तक पहुँचना ही पड़ता है और वास्तव में जो हमारे सामने जो बिन्दु हैं उन पर हमें सवाल करना पड़ता है और उनके तार्किक पक्ष तक हमें पहुँचने की आवश्यकता भी होती है तो यहाँ पर हम किसी सिद्धान्त के विरोधी अथवा किसी पक्ष के विरोधी इस प्रकार की बातों को हमें मस्तिष्क में रख कर के आगे चलना नहीं चाहिए शोध के समय में अपना एक सरल दृढ़ पथ होना चाहिए और विचारों की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए और वे विचार किसी सम्प्रदाय विशेष अथवा आस्था से सम्बन्धित हमें दिखना नहीं चाहिए केवल मानव कल्याण के लिए मानव जीवन के अध्ययन से सम्बन्धित वह प्रश्न हमारे सामने हमें नजर आना चाहिए तो अब बात आती है रोग निर्धारण और रोग निदान। क्योंकि रोग निदान हेतु सबसे पहले अपेक्षा है रोग निर्धारण का। रोग निर्धारण करने की अनेक विधि हम देखते हैं।
रोग निर्धारण की विधियों में हमारे सामने इस समय सबसे बड़ी एक परम्परा हमें जो दिखती है वह है पेथेडालॉजी परम्परा अर्थात् खून का परीक्षण रक्त का परीक्षण सीटी स्केन एम आर आई एक्सरे इत्यादि ये जो अंग विशेषों का वैज्ञानिक तरीके से चित्र आदि ग्रहण करने का और उसके अन्तर्गत तत्त्वों के मात्रा को जानने का इनके बिना भी क्या यह सम्भव है रोग निर्धारण करना तो ज्योतिष के आधार पर तो यह कहना पड़ेगा कि हाँ यह सम्भव है यदि हम सिद्धान्त के रूप में ज्योतिष का अध्ययन कर रहे हैं और सिद्धान्त के रूप से यदि ज्योतिष को हम समझ रहे हैं तो उसमें प्रारम्भ से ही जहाँ शरीर के विभिन्न अंगो को काल पुरुष के अंगो के रूप में विभाजन करके उनको राशियों को सम्बद्ध करते हैं आचार्य जी और उन तद् तद् राशियों के दुर्बल होने पर तद् तद् अंगो को दुर्बल बताते हैं और तद् तद् राशियों के सबल होने पर तद् तद् अंगो की भी सबलता बताते हैं तो फिर यहाँ एक बात पहला सोपान तो बहुत स्पष्ट है आप शरीर का कौन सा अंग कौन सा भाग यदि 12 भागों में शरीर को बांटा जाए बाह्य शरीर को तो उसमें कौन सा अंग दुर्बल है अथवा कौन सा ग्रस्त है यह इतना तो सामान्य रूप से समझ में आ जाता है फिर उसके बाद आचार्यों ने अन्दर इस शरीर को चलाने के लिए जो अपेक्षित धातु हैं उन सबका भी विभाजन किए हुए हैं रक्त मज्जा मांस अस्थि मेदा इत्यादि जितने भी पदार्थ हैं अन्दर उन सबका विभाजन हुआ है उन सबको ग्रहों के आधिपत्य बताया हुआ है।
आरब्धात जिस अंग हमें प्रभावशाली दिख रहा है प्रभावित दिख रहा है अथवा कुप्रभावित दिख रहा है वहाँ पर वो किस तरह के कारण प्रभावित है इतना तो आसानी से समझ में आ जाता है फिर उस ग्रह के धातु से सम्बन्धित विकार शरीर में हमें समझ में आ जाता है। इस प्रकार का विश्लेषण यदि शरीर को किया जाए तो वह स्थिति उसकी पराकाष्ठा कहाँ तक होनी चाहिए एक कुण्डली विश्लेषण होते ही उनको किस प्रकार की अन्दर किस प्रकार की बीमारी हो सकती है इसकी एक साधारण ज्ञान द्रष्टा को हो जानी चाहिए। आरब्धात् केवल जातक चक्र पर दृष्टि जाते ही जातक समझ में आ जाना चाहिए कि उनके रक्त विकार होगा तो किस प्रकार का रक्त विकार होगा उस रक्त संचार से उस विकृत रक्त संचार से शरीर का अन्तर्गत रूप से कौन सा भाग प्रभावित रहेगा और उस अन्तर्गत दूषित अंग के कारण कौन सा बाह्य अंग अपने कर्तव्यों को निभाने में अक्षम रहेगा अथवा एक समय जाके किस समय में वह अक्षम हो जाएगा इत्यादि बातें सभी जातक को माने द्रष्टा को समझ में आ जाना चाहिए। इसकी और एक पराकाष्ठा हो सकती है। वास्तव में जो लक्षण राशियों का बताया गया है जो लक्षण ग्रहों का बताया गया है जो हाव भाव ग्रहों का राशियों के बताये गये हैं उसके आधार पे किसी व्यक्ति के बारे में सुनने के बाद ही समझ में आ जाना चाहिए उस व्यक्ति के लक्षणों के आधार पर ही कारक ग्रह और कारक राशि समझ में आ जाना चाहिए। और रोगी को सामने देखते ही समझ में आ जाना चाहिए कि वह रोगी किस राशि से सम्बन्धित है किस ग्रह से सम्बन्धित है और किस प्रकार के रोग से पीड़ित है।
ये कल्पनाओं की दुनिया नहीं है ये एक जब हम आख्यानों को पढ़ते हैं गाथाओं को पढ़ते हैं जो परम्परागत पौराणिक हो वैदिक हो जो भी कथाएं हमारे सामने दिखती है उनमें हम बहुत बार इस प्रकार की बातों को सामना करते हैं जहां पर कोई महर्षि अथवा कोई द्रष्टा दूर दृष्टि रखने वाले व्यक्ति को सामने देखते ही उसके समस्या को बता देता है अथवा उस समस्या के पीछे कहाँ जड़ क्या है यह भी बता देता है ये तो हमारे यहाँ के परम्परा में कोई कमी नहीं है। अब वह श्रुति परम्परा हो गया अर्थात् परम्परा के अन्तर्गत सुनते सुनते हम आये हैं अब उसको देखने का या अनुभव करने का हमारे पास कोई अवसर नहीं मिल रहा है तो अब शोध उस दृष्टि से होना है। जब आधुनिक विज्ञान का इतना विकास हो गया यन्त्रों का प्रयोग होने लगा तो हमें इस प्रकार के विकास की क्या अपेक्षा है हम यह सवाल कर सकते हैं। तो एक बार एक्सरे एक बार एम आर सीटी स्केन उसके बाद एम आर आई उसके बाद और और और परीक्षण के जहां आवश्यकता यन्त्रों की अपेक्षा रखती है और अन्य स्थानों में जानने की अपेक्षा रखती है और द्रव्य विनिमय की जहां अपेक्षा रखती है वहीं पर दैव ज्ञान एक स्थान में स्थित होकर अन्तर्गत रूप से उसकी पीड़ा को समझ सकता है और बता सकता है। अब बची यहां बात अनुसन्धानात्मक अध्ययन की ग्रन्थों का अध्ययन ग्रन्थों में आचार्यों के द्वारा बताये गये तथ्यो का अध्ययन और उन तथ्यों का आज के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन वही हमारा शोध का पक्ष है उन तथ्यों को आज के विकसित विज्ञान के आईने में हमें अध्ययन करना है। उस अध्ययन के बाद वचता है इस रोग निर्धारण के बाद बचता है रोग निदान। निदान हेतु वनस्पतियों की ग्रहों से सम्बन्धित वृक्षों की ग्रहों से सम्बन्धित जड़ों की और ग्रह कुप्रभाव को मिटाने की तरीकों की विस्तृत चर्चा तो ग्रन्थों में है ही।
स्नान दान जप आदि इत्यादि जितने भी अवस्थाएं बताये हैं आप अस्पताल में जाकर ड्रेसिंग कराते हैं अस्पताल में जाकर आप माने शरीर में यदि आयुर्वेद आदि में चरण लेपन आदि होता हैशरीर का संस्कार होने लगता है। और इसी प्रकार से यहां पर स्नानादि लेपनादि सब कुछ यहां पर भी चलते हैं हवन इत्यादि। इस समय में हवन इत्यादि का अथवा लेपन इत्यादि का अथवा वनस्पतियों से स्नान इत्यादि का एक तर्क मांगता है समाज। और स्वभाविक बात है तर्क मांगता है क्योंकि समाज को यह पता है कि एक विशेष शैम्पू को हम लेंगे तो डेंड्रफ समाप्त हो जाता है समाज को यह पता है कि एक विशेष साबुन को लेके यदि हम नहाते हैं तो चर्म व्याधियां दूर हो जाती हैं। और समाज को यह पता है कि एक अवलेह्य मुख में लेपन कर लेंगे तो शरीर सुन्दर भी हो जाता है और उसमें बुढ़ापे के लक्षण दिखने नहीं लगते हैं तो फिर वही समाज के सामने अमुक ग्रह का अवलेह्य अमुक ग्रह का यह चूर्ण अमुक ग्रह का यह वनस्पति इसका प्रयोग करना चाहिए इसका रोपण करना चाहिए इस प्रकार के वृक्षों को बढ़ाना चाहिए उस वृक्ष के इन पदार्थों का सेवन करना चाहिए यह कहने पर वह समाज नहीं मान रही है यह हम नहीं कह सकते हैं क्योंकि अब अन्जाना हो गया है। श्रुति परम्परा भी समाप्त होती गई अब वहुत कम रह गया है। और हम पेरासिटमोल में अथवा किसी दवा में जो क्षमता को हम देखते हैं वह क्षमता वनस्पतियों को लेते हुए हम महसूस नहीं कर पा रहे हैं इसका प्रचार प्रसार और उनसे भी बढ़कर अनुसन्धानात्मक अध्ययन की कमी है तो उसी दृष्टि से हमें अब एक चिकित्सा ज्योतिष की दृष्टि से यहां चिकित्सा ज्योतिष का अर्थ कोई अलग ज्योतिष नहीं है ज्योतिष के अन्तर्गत वही तत्त्व और वही तथ्य जो रोग निर्धारण और रोग निदान में सहयोगी हो सकते हैं उन पर अब हमें अध्ययन करना है।
तो हमारा ये जो पहला पक्ष है इस समय में शोध की क्या आवश्यकता है और किस प्रकार हम चुने क्षेत्रों को तो उसके अन्तर्गत जो पहला हमारा क्षेत्र हुआ यह रोग निर्धारण तथा रोग निदान तो कैसे सम्भव है कहां तक सम्भव है वाली बाते यहां पर प्रारम्भ में हमारे सामने नहीं आना चाहिए क्योंकि हम मात्र वनस्पतियों के रस से निदान हुए रोगों के बारे में कथाओं में सुनते हैं और मात्र कोई वैली अथवा कोई किसी वृक्ष विशेष के पत्तों को मात्र सेवन से रोगों के निदान को भी हम सुने हुए हैं और केवल सूर्य की आराधना से रोगों को निदान होते हुए बातों को हम सुने हैं और गम्भीर से गम्भीरतम रोगों का निदान स्नान दान जप आदि से होने की बातों को हम आख्यानों में कथाओं में वैदिक संस्कृति में बहुधा सुने हुए हैं। आपको जो बहुधा सुने हुए हैं जो बहुधा प्रचरित था जो बहुधा प्रसरित था जो बहुधा प्रचलित था इन बातों को अब समसामयिक बनाने की आवश्यकता है। क्योंकि आज के समय में निदान निर्धारण और निदान अन्त्यन्त आवश्यक हैं। अब एक बात आती है कि ज्योतिष का यह पक्ष कर्म सिद्धान्त का जो कर्म करता है जो प्राक्तन पापों को ही रोग के रूप में व्यक्ति भोगता है तो हमें इसमें निर्धारण और निदान हमें करना नहीं चाहिए अथवा हमारे निर्धारण और निदान से समस्या का समाधान नहीं होगा क्योंकि जातक को वह कर्म भुगतना होगा इत्यादि बातों को यदि यदि कोई कहते हैं क्योंकि हममें भी वह पक्ष भी होगा क्योंकि जब पक्ष विपक्ष होगा तो उस विपक्ष को भी हमें साथ में लेकर चलना होगा। यदि यह बात आती है तो उस पर भी गम्भीरता से हमें विचार करना है।
जो प्राक्तन कर्म है जो पीड़ा देते हैं जो शारीरिक विकारों को उत्पन्न करते है औऱ जो मृत्यु को देते है तो वह भी एक प्रकार के नहीं होते हैं अर्थात् मृत्यु जीवन में अनेक रूपों में आती है इसको आचार्यों ने आठ प्रकार से वर्णित किए हुए हैं मृत्यु को शारीरिक वेदना मानसिक वेदना भिन्न भिन्न रूपों में आती है तो यहां पर हमारा प्रयास उन प्राक्तन कर्मों को भुगते बिना जातक माने मुक्त हो जाए इसका नहीं है। इष्टापूर्ति अनिष्टपरिहारः माने इष्ट की जो सानुकूल है उसकी पूर्ति हो जो प्रतिकूल है उसका परिहार हो इसका अर्थ यह नहीं है कि वहाँ पर उस स्थिति को हम मिटा दें। स्थिति मिटती नहीं है संवेदना मिटती नहीं है वह त्वरित विकार मिटता नहीं है किन्तु बहुत मात्रा वो कमजोर हो जाता है कम हो जाता है और व्यक्ति सबल हो जाता है यहाँ पर वनस्पतियों का सेवन ग्रहों की आराधाना अथवा स्नान दान जप आदि ये सभी प्रक्रियाएँ व्यक्ति को समस्या को सामने करने की और उसको पार करके सामने आने की एक बल प्रदान कर देते हैं और मृत्यु किसी भी रूप में आवे जिस मृत्यु के जिक्र होता है ज्योतिष में वहां आचार्य बार बार कहते हैं मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट होगा और मृत्यु तुल्य कष्ट में यदि व्यक्ति सबल नहीं है ग्रहादि बल से तो वह मृत्यु हो जाता है और यदि ग्रहादि बल प्राप्त कर के सानुकूल फल प्राप्त करके सानुकूल बल प्राप्त करके व्यक्ति उस मृत्यु का पार कर लेता है तो फिर अगली बार जब आती है तब तक उसको कोई आपत्ति दिक्कत नहीं होती है माने वह चल सकता है।
एक सौ बीस वर्ष के उम्र का अर्थ यही है कि केवल बिना किसी अवरोध के 120 साल जीयेगा वह व्यक्ति ऐसे नहीं है। ग्रहों के आधार पर प्राक्तन कर्म के आधार पर जो भुगतना होगा उसको वो स्थितियां सामने आती ही रहेंगी किन्तु उन स्थितियों की प्रबलता से भी कहीं गुना ज्यादा प्रबल व्यक्ति सानुकूल प्रभाव से परिपुष्ट हो जाता है तो फिर वह समस्या वह बहुत सामान्यतया सामने करके आगे आ जाता है। तो इस पक्ष को गम्भीरता से लेना है हमारा चिकित्सा ज्योतिष के नाम से यदि हम जो क्षेत्र यदि एक बनाते हैं तो वहाँ पर हमारा मुख्य लक्ष्य एक ही रहता है कि ग्रहों के आधार पर अर्थात् ज्योतिष के आधार पर रोग निर्धारण करना और ज्योतिष के आधार पर ही रोग निदान करना किस हद तक सम्भव है इसके लिए हमें प्रायः आचार्यों के द्वारा प्रदत्त विवरणों का अध्ययन तो साथ में करते ही रहना होगा और उन अध्ययनों के साथ साथ उनको समसामयिक बनाना भी होगा और वर्तमान परिप्रेक्ष्य जिस प्रकार से विज्ञान का विकास हुआ है उन विकसित पक्षों को भी साथ में लेते हुए उन प्राचीन उद्बोधों का उपदेशों का अध्ययन करना है तो यदि हम इस प्रकार के अध्ययनों को करते हैं तो हमारे सामने शतमानं भवति इस प्रकार के आशीर्वचन मन्त्रों के और 120 वर्ष का जो अधिकाधिक जो उम्र मानव का बताया है उस उम्र का साधन करने में भी हमें कोई समस्या नहीं आएगी। और समसामयिक अध्ययन और वर्तमान विकसित विज्ञान के आईने से प्राचीन परम्परा के विषयों को देखने का ये जो प्रयास ये प्रयास तभी सफल होगा जब हम जो भौतिक विज्ञान विकसित भौतिक विज्ञान है आज के समय में उसके सहारे लेने पर ही होगा।