Need of Research

तीसरा भाग

शोध की आवश्यकता पर एक समग्र विचार प्रस्तुत करने के बाद हम पिछले भाग में रोग निर्धारण एवं रोग निदान पर एक दृष्टि डालने का प्रयास किए थे। इसी प्रकार से इस भाग में हम कृषि क्षेत्र से सम्बन्धित पहलु जो वैदिक वाङ्ग्मय में कहा गया खास करके जो ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है वहां शोध की क्या आवश्यकता है अथवा शोध की क्या संभावना है अथवा किस प्रकरा से हम उस क्षेत्र को समसामयिक अथवा प्रासंगिक बना सकते हैं इन पर विचार करते हैं।

अन्नं जगतः प्राणाः एक संहिताकार का वचन है, अन्नादेव भूतानि जायन्ते एक वैदिक संहिता का वचन , अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ये गीताकार का वचन है। इस  प्रकार के जितने भी हम वाक्यों को देखते हैं अथवा इस प्रकार के जितने भी हम तथ्यों का अन्वेषण करते हैं तो वहां पर मुख्य रूप से प्राणसंचार का जो आश्रय आधार वो अन्न ही है। वर्तमान समय में जो सात सौ सतहत्तर करोड़ की आबादी है विश्व का उसमें हम जानते हैं अधिकांश अर्थात् कम से कम चालीस प्रतिशत आबादी पूर्ण रूप से अन्नविहीन है। अर्थात् उनके प्राण निराधार हैं, निराश्रय हैं, अर्थात् उनको प्राणसंचार हेतु अपेक्षित अन्न की उपलब्धि नहीं हो रहा है। तो उस स्थिति में मसला तो गम्भीर है, और जहां पर अन्न की उत्पत्ति हो रही है वहां पर भी क्या प्राणाधार के रूप में अन्न की उत्पत्ति हो रही है इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है और शोध की कड़ी इन्हीं बिन्दुओं पर वर्तमान में अनिवार्य रूप से निर्भर होती है।

कहीं एक रिपोर्ट में कहा जाता है कि एक किलो चावल माने एक किलो चीनी के बराबर है आज के समय में दाम में नहीं शरीर में शूगर की उत्पादन करने में अर्थात् डायबिटीज को जन्म देने में। और अधिकांश हम जो उत्पत्तियों को देखते हैं अर्थात् अनाजों को देखते हैं जो प्राण संचार के लिए अपेक्षित तत्त्वों की देने की बजाय शरीर को रोग पीड़ित करने की क्षमता को रखते हैं। आयाम कहीं छूटा हुआ है कड़ी कहीं छूटा हुआ है जिस प्रकार की बातें सुनने को मिलते हैं कि  एक समय में भोजन में बहुत शक्ति हुआ करता था तो जो प्राचीन काल के लोग हैं वो केवल भोजन से ही पूर्ण आरोग्य को प्राप्त करते थे इत्यादि बातों को यदि हम क्षेत्रों में बांटे विभिन्न भागों में यदि विभाजित करें यदि विश्व को विभाजित करें अथवा भारत को विभाजित करें तब भी हम जानते हैं कि एक एक क्षेत्र में यहां इस क्षेत्र में यह उपजाऊ के रूप में माने प्रयोग किया जाता था इस स्थान में यही  होते थे इस स्थान में तिल होते थे, इस स्थान में बाजरा होता था इत्यादि बातें हमें सुनने को मिलती हैं। और पिछले कुछ वर्षों से अर्थात् यदि आप स्वतंत्र भारत की भी बात कर सकते हैं स्वतंत्र भारत के यदि हम बात करें तो यहां पर एक परम्परा ऐसे देखने को मिलती हैं जिसमें लाभ होने लगता है जिसमें लाभ लगने लगता है तो उस प्रकार की खेती करने की एक आदत सी हो गई है उस स्थान में क्या उपजता था और उस स्थान में किस प्रकार की कृषि होती थी परम्परा क्या बता रहा है इत्यादि बातों पर आज के समय में कोई ध्यान नहीं है ये आलोचना की बात नहीं है ये एक विचारणीय बात है और एक अन्वेषण की दृष्टि से शोध की दृष्टि से देखने की बात है। पञ्चाङ्गो में लिखा रहता है कि इस वर्ष  कौन सा अनाज लाभ दे सकता है किस प्रकार के अनाज के खेती करने से वहां लाभ मिल सकता है और किस प्रकार की खेती में नुकसान हो सकता है और किस स्थान में कितनी वर्षा हो सकती है और किस स्थान में कितनी वर्षा कहां पर अकाल होगा इत्यादि बातें सारे जो औपचारिक हो गए हैं। प्रायः खेती करने से पहले इन बातों पर विचार तो होता नहीं है न परामर्श किसी भी क्षेत्र से मिलता है हम किसी भी क्षेत्र कहने का तात्पर्य यह है आलोचना करने से पहले हमें स्वयं पर भी आलोचना करना अनिवार्य होता है तो ज्योतिष का एक परमोद्देश्य होता है परामर्श देना और परामर्श कोई पूछा नहीं है ये नहीं कह सकता है दैवज्ञ। दैवज्ञ का यह कार्य ही होता है परामर्श देना और परामर्श समय के अनुकूल देना और परामर्श लोक कल्याण के लिए देना तो कहां पर कितने प्रकार के वृष्टि होगी किस प्रकार का फसल होगा और किस प्रकार के फसल में किस प्रकार की प्राकृतिक आपदा होगी पशुओं के रूप में कीटों के रूप में अथवा अति वृष्टि के रूप में या अनावृष्टि के रूप में या आग लगने की दृष्टि से। इन सभी पहुलओं को विचार करने से पहले एक वृत्तान्त को यहां पर प्रसंग के रूप में ले आना बहुत अनिवार्य लगता है। अहिल्या वृत्तान्त , अहिल्या  वृत्तान्त पर कुछ वर्ष पहले एक कथा सम्भाषण सन्देश में छपा था और वास्तव में वह सम्भाषण संदेश में छपी हुई वह एक लेख शोध कर्ताओं को एक नई दृष्टि दे सकता है। और शोधकर्ता उस दृष्टि से विचार कर सकते हैं। तो अभी हम एक बार उस अहिल्या वृत्तान्त को देखते हैं सभी जानते हैं अहिल्या महर्षि जी की पत्नी और महर्षि जी के शाप के कारण पत्थर बन जाती है और शाप किस वजह से हुआ इन्द्र के कारण और इन्द्र में भोग विलासिता बहुत ज्यादा रहता है और इन्द्र की कामना अति भोग की जो ये इन्द्र की कामना थी वो अहिल्या को खतरे में डाल दिया था और महर्षि दूर दृष्टि रखने वाले महर्षि भी अहिल्या को शाप दे देते हैं। शापग्रस्त अहिल्या का अहिल्या की जो प्रतीक्षा वो क्या थी कि भगवान् श्रीराम आएंगे और श्रीराम का चरणों का स्पर्श होगा फिर वो अहिल्या फिर पुनर्जीवित हो जाएगी। तो इस प्रकार की यदि इसको हम केवल कथा मानें यदि केवल इसको हम कल्पना माने पौराणिक वैदिक सभी पहलुओं को किनारे रखें और यदि एक मात्र किसी की कल्पना की दृष्टि यदि यहां पर हम देंखे तब भी यहां पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की वहां कल्पना यह नहीं कर सकते हैं कि अहिल्या जैसे एक सती पतिव्रता को चरणों से स्पर्श करेंगे श्रीराम और फिर अहिल्या पुनर्जीवित होगी। तो फिर यहां लेखक किस पक्ष को दिखा रहे हैं ये बहुत महत्त्वपूर्ण है हल सभी जानते हैं  खेतों में हल चलता है और उपभोग वाद भी हम सभी जानते हैं एक खेती जहां करनी चाहिए जमीन से दो खेती करनी है वहां पर यदि हमारा लालसा भोग लालसा यदि अधिक हो जाए लाभ की अकांक्षा कि यदि पराकाष्ठा में हम पहुंच जाएं तो हम इतना दोहन इतना शोषण करेंगे उस जमीन का कि वह अहिल्या हो जाती है तो यहां अहिल्या यानि न हल्या माने हल चलाने लायक नहीं रहता है तो हम हल कहां नहीं चलाते हैं तो बंजर में नहीं चलाते हैं फिर वह अहिल्या हल्या कैसे होगी अर्थात् पुनर्जीवित कैसे होगी अर्थात् फिर वह जमीन फिर उपजाऊ कैसे होगा तो कहते हैं कि वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पद पड़ेंगे  तो यहां मर्यादा पुरुषोत्तम के पद पड़ने का वहां रूढ़ार्थ नहीं है अर्थात् राजा मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनेंगे तो फिर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के राज्य में क्या होगा तो उस शोषण से उस दोहन से बचाएंगे अर्थात् आपको कौन सा खेत करना चाहिए किस प्रकार के फसल से आपको आपके समाज को आपके पर्यावरण को माने कल्याण होगा। तो उस प्रकार के परामर्श एवं उस प्रकार के निर्देश देने वाले राम आएंगे तो फिर वह जमीन अपने पूर्व वैभव को प्राप्त करेगा यह अहिल्या वृत्तान्त हमें आज के समय में कृषि से दूर होने वाले जितनी जमीन है जितना बंजर पड़ा हुआ है और जितना लोक कल्याण में प्रयोग जितने का किया जा सकता है तो उन सभी पर हमारा ध्यान आकर्षण करता है। फिर दूसरा पक्ष क्या है कि मेषादि बारह राशि और मेषादि बारह राशियों को एक स्वामित्व एक दायित्व एक कारकत्व दिया हुआ है फसलों का एक कुलूथ है तो एक माष है ये सरीसृप है तो इन इन के ये कारक हैं इस इस समय में इनका उपजाऊ होगा इत्यादि बातें फिर हम पञ्चाङ्ग के प्रारम्भ में राजा मन्त्री सस्य कारक वर्ष कारक इत्यादि ग्रहों को जब तय करते हैं तो वहां का मकसद वहां का एक दृष्टि भी यही है कि साल भर वर्ष भर माने किस प्रकार का निर्देश मिले कृषक को। क्योंकि केवल भारत कृषक प्रधान था ऐसे कहने की आवश्यकता नहीं है पूरे विश्व कृषि पर ही निर्भर होता था तो उसका उदाहरण एक सौ बीस साल एक सौ तीस साल पहले का अफ्रीका खण्ड है तो जहां उपभोगवाद के कारण अथवा मनुष्य के विकृत दृष्टि के कारण वहां सबसे ज्यादा इस समय अन्न रहित प्राण वहां मिलते हैं और अन्न के लिए तरसने वाले प्राण वहां मिलते हैं तो अब यहां पर शोध क्या हो सकता है। शोध प्रादेशिक दृष्टि से किस प्रकार के खेती करने से लोककल्याण होगा और अति स्वल्प मात्रा में भी स्वीकार करने से कौन सा अनाज शरीर को स्वस्थ बनाएगा और किस प्रकार से क्रिमीसंहारक छिड़काव के बिना खेती हो सकता है तो इनमें ज्योतिष का जो पहलु जो कृषि के क्षेत्र में जितने भी प्राचीन निर्देश हैं उन सबको समसामयिक करने की आवश्यकता है। इन सबको समसामयिक करने से पहले वृष्टि पर जो विचार पञ्चाङ्गों में पञ्चाङ्ग निर्माण के समय में अथवा संहितागत जो भी वृष्टि से सम्बन्धित बातें बताए गए हैं तो उन सब पर एक अनुसन्धान किस प्रकार से आज की दृष्टि से अनुसन्धान की अपेक्षा है। वृष्टि यदि ज्योतिष के विचारों को ध्यान से देखते हैं तो हमेशा बराबर में होती है यानि उसकी मात्रा बराबर होती है किन्तु उसका जो शिफ्टिंग होता है अर्थात् जो परिवर्तन होता है तो उसमें एक वाक्य पञ्चाङ्ग के पूर्व पीठिका में बार बार लिखने का जो निर्देश होता है वहां तय करना होता है कि जमीन पर अर्थात् मिट्टी पर पृथ्वी पर कितने मात्रा में वारिश होगी और समुन्द्र पे कितने मात्रा में होगी। और हम ये जान रहे हैं कि यदि वह वारिश समुन्द्र के ऊपर होगा तो वह हमारे लिए निरर्थक ही होगा। भले पानी समुन्द्र से ही भाप बन के निकलता है किन्तु गिरकते वक्त बरसते वक्त उसके और समुन्द्र के पानी में क्या अन्तर होता है हम सभी जानते हैं तो यह एक नई दृष्ट की आवश्यकता है इस दृष्टि के लिए हमें नए आविष्कार की आवश्यकता नहीं है सभी पहलु सभी आयाम और  सभी निर्देश  संहिता ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। हमें क्या करना होगा वर्षा को पहचानना है वर्षा के हाव भाव को पहचानना है महर्षियों के वर्षा से सम्बन्धित वचनों को जानना है और उन वचनों का प्रयोग आज के दृष्टि से करना है। और बीजारोपण से ले के अर्थात् खेती कृषि कार्य को करने से ले कर कनमर्दन तक और धान्य को बचाने की जो विविध उपाय बताए हैं और विपणि में धान्य को ले जाने का जो समय बताया गया है उन सभी पर प्राचीन दृष्टि से और आज के दृष्टि से एक अनुसन्धानात्मक कार्य करने की अपेक्षा है। जितने संहिता ग्रन्थों में अनाजों के नाम दिए हैं और जितने स्थानों के नाम दिए हैं और मृत्तिका परीक्षण माने मिट्टी के परीक्षण का टेस्टिंग के जितने भी विधाएं बताए हैं और जिस प्रकार से प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की बात किए हैं और जिस प्रकार से प्राकृतिक आपदाओं के पूर्वानुमान करने की बात किए हैं इन सबको एक जगह में जब समीकृत कर लेंगे तो वह पञ्चाङ्ग की पूर्वपीठिका बन जाती है पञ्चाङ्ग के पूर्व पीठिका में अधिकांश निर्देश समाज कल्याण मानव कल्याण के लिए ही किए जाते हैं जो औपचारिक हो गए हैं। वर्षा का प्रमाण, वर्षा गिरने का स्थान और उस वर्ष में उपजाऊ अर्थात् उस वर्ष में फलीभूत होने वाले अनाज और उस वर्ष में विपणि में अर्थात् मार्किट में जिनकी जो मांग हो सकता है उनका जो भी जिस प्रकार के भी वहां पर दिया हुआ है जिस प्रकार का भी वहां निर्देश दिए हुए हैं उन निर्देशों का एक अनुसन्धानात्मक अध्ययन आज के दृष्टि से होने चाहिए तो इसके लिए हमें किसी न किसी एक आचार्य तक पहुंचना होगा और चार सौ बत्तीस करोड़ के एक कल्प प्रमाण को लीजिए तैंत्तालीस लाख बीस हजार के तैंत्तालीस लाख बीस हजार वर्षों के एक महायुग के प्रमाण को लीजिए अथवा चारलाख बत्तीस हजार के केवल कलियुग के ही मान को लीजिए और इतने लम्बे चौड़े जिनमें हम शामिल नहीं हो सकते हैं इतना पीछे इतने दूर यदि हम नहीं जा सकते हैं तो केवल मात्र पन्द्रह सौ वर्ष पहले जो उस समय की स्थितियों को उजागर करने वाले वराहमिहिर तक ही पहुंचना है हमें कमसे कमसे हम पन्द्रह सौ वर्ष तो पीछे जाएं और उस समय के भारत वर्ष को उस समय के विश्व को उस समय के कृषि की स्थिति  को और उस समय जिस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन उसमें किया गया था कृषि क्षेत्र से के विरोध में कृषि क्षेत्र को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक आपदा जिनका उपदेश वहां दिया हुआ था उन पर एक अनुसन्धान आज बहुत आवश्यक है अपेक्षित है अपेक्षित इस दृष्टि से है यदि व्यक्ति तीनों समय भोजन न करे यदि एक ही समय भोजन करे तब भी स्वस्थ रहे अर्थात् वह भोजन स्वास्थ्य कारक हो वह भोजन रोगकारक न हो। आज के तमाम रिपोर्ट से रिपोर्ट तमाम विश्लेषणों को देखने पर हमें यह समझ में आता है कि भोजन अथवा सब्जी इत्यादि जो कृषि से उत्पन्न होने वाले जितने भी पदार्थ है जितने भी उत्पादन हैं वो किस किस प्रकार के रोगों को उत्पन्न कर रहे हैं और अन्नं जगतः प्राणाः वाली बात अब विपरीत हो गया अब जितना सेवन करेंगे आज के समय के अन्न को और जिस प्रकार का अन्न उत्पादन हैं आज के समय में जिस प्रकार के अन्न उपज हो रहा है आज के समय में वो किस प्रकार से हमारे जीवन प्रमाण को समाप्त कर दे रहा है और जीवनशैली को समाप्त कर दे रहा है और आमय माने निरामय होने की जो बात अन्न से सिद्ध ही नहीं हो रहा है और जिसके लिए हमें औषधियों का प्रयोग करना पड़ रहा है तो इस पहलु से हमें शोध करना चाहिए इस पहलु से अनुसन्धान होना चाहिए और इस पहलू से बीजों का उत्पादन होना चाहिए। जड़ बीजों पर है आज हमारे विकृत चेष्टाएं उस स्थिति तक पहुंच रहे हैं कि वृक्ष बढ़ नहीं रहा है और फलदार हो रहा है जहां हमें छः साल छः सात साल का प्रतीक्षा करना होता था एक वृक्ष से फल प्राप्ति करने के लिए आज के समय में छः महीने के अन्दर वह वृक्ष फल देने लगता है। तो वो किस प्रकार का अन्न है वो किस प्रकार का हमारे समाज को कल्याण कर सकता है तो एक यहां पर ज्योतिषियों के वैदिक परम्परा के अनुयायियों के वैदिक परम्परा के अनुसरण करने वालों के लिए एक प्रमुख दायित्व बनता है यदि समाज कल्याण के लिए मानव कल्याण के लिए यदि वेद हैं वैदिक वाङ्गमय है वेदाः सर्वहितार्थाय यदि वैदिक वाङ्गमय सर्वहितार्थ के लिए है तो फिर वैदिक वाङ्गमय के अनुपालन करने वाले अनुसरण करने वालों पर यह जिम्मेदारी यह दायित्व निर्भर होता है कि वे किस प्रकार से वेदों की वैदिक वाङ्गमय की वैदिक शास्त्रों की सामाजिक उपादेयता को पुनरुत्थापित करेंगे पुनः स्थापि करेंगे उनको उस मार्ग को पुनः पुनर्जीवित करेंगे और प्रशस्त करेंगे इन्हीं पर यह निर्भर होता है और यह एक शोध का आयाम है जो अत्यंत आवश्यक है।