शैशव संस्कार बच्चे के शैशव काल में किये गये संस्कार शैशव संस्कार के नाम से जाने जाते हैं । शैशव संस्कारों में छः संस्कार आते हैं । 1. जातकर्म, 2. नामकरण, 3. निष्क्रमण, 4.अन्नप्राशन, 5. चूडाकरण, 6. कर्णवेध 2.5.2.1 जातकर्म यह संस्कार नाभिच्छेदन से पूर्व किया जाता है । जातकर्म बाल्यावस्था का प्रथम संस्कार है । मनु ने कहा है प्राङ्नाभिवर्धनात् पुंसो जातकर्म विधीयते । मन्त्रवत्प्राशनञ्चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम् ।। जातकर्म संस्कार में पुत्र जन्म के उपरान्त अग्नि प्रज्वालित की जाती है तथा वहां पर कुछ अङ्क लिखा जाता है । इसके उपरान्त दहीं, घी व शहद का मिश्रण कांस्य के पात्र में बनाया जाता है । तथा नवजात बालक के दक्षिण कान के पास अपना मुख ले जाकर ‘वाक्‘ शब्द का तीन बार उच्चारण करके दहीं, घी व शहद का मिश्रण सोने के चम्मच से शिशु को पान कराया जाता है । तदुपरान्त उस शिशु को माता को समर्पित करके मन्त्रादि का उच्चारण कर माता का स्तनपान कराया जाता है । 2.5.2.2. नामकरण मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह समाज में रह कर बहुत प्रकार के व्यवहारों का निर्वहन करता हैं । इन व्यवहारों को निर्बाध रूप से चलाने के लिये मानव ने भाषा का विकास किया तथा अपने जीवन मे व्यवहार में आने वाली वस्तुओं का नामकरण किया है । अतः समाज के कार्याे को निर्विवाद चलाने के लिये नामकरण परमावश्यक होता है । क्योंकि अखिल व्यवहार का हेतु यह नाम ही है । मनुष्य नाम से ही कीर्ति प्राप्त करता है । आचार्य बृहस्पति ने संस्कार प्रकाश में लिखा है – नामाखिलस्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसुभाग्यहेतुः । नाम्नैव कीर्तिं लभते मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म ।। संस्कारों का प्रमुख उद्देश्य शरीर की शुद्धि करना है । तथा धार्मिक अनुष्ठान भी उसी विधि के अन्तर्गत आते हैं । अतः शिशु के नामकरण में धार्मिक भावना प्रदर्शित होती है । अतः शिशु का नाम इष्टदेव या किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम पर रखने की प्रथा प्रचलित है । इसी प्रकार शिशु का गुह्य नाम रखने की परम्परा भी प्रचलित है । आचार्यों के मत में गुह्य नाम मानव के अन्तः करण से निहित होता है । अतः उसे विरोधी जनों से गोपनीय रखा जाता है । गृह्य सुत्रों में गुह्य नाम नक्षत्र चरणों के आधार पर रखा जाता है । नामकरण में विभिन्न मत प्रचलित हैं । जैसें कि पारस्कर ने नामकरण का विधान इस प्रकार प्रस्तुत किया है । ‘नाम द्वयक्षरं स्यात्, नामचतुरक्षरं स्यात्, नाम्न आदौ व्यञ्जनाक्षरं स्यात्, नाम्नि अर्धस्वरः स्यात्, नामान्ते दीर्घस्वरो विसर्गाे वा स्यात्, नाम्नि कृत् प्रत्ययः स्यात्, तद्धित प्रत्ययो न स्यात् ।‘ आचार्य वैजवाप ने अक्षरों का प्रतिबन्ध न मानते हुये लिखा है – पिता नाम करोति एकाक्षरं द्वयक्षरं त्र्यक्षरम् अपरिमिताक्षरं वा । आचार्य वशिष्ठ के अनुसार नाम दो या चार अक्षरों का होना चाहिये । नाम के अन्त में रेफ व लकार नहीं होना चाहिये । कन्या के नाम के विषय में पारस्कर का मत है कि कन्या का नाम आकारान्त व विषम अक्षरों में होना चाहिये । इसी प्रकार मनु ने कन्या के नाम के विषय में लिखा है – óीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम् । मङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत् ।। अर्थात् कन्या का नाम ऐसा होना चाहिये जिसका सुख पूर्वक उच्चारण किया जा सके। जिसके शब्दों का अर्थ स्पष्ट हो। जो माङ्गलिक शब्दों से युक्त हो । जिसका अन्तिम वर्ण दीर्घ हो । जिन शब्दों से आशीष प्रकट हो आदि । नामकरण संस्कार जातकर्म के बाद किया जाता है । पारस्कर, लौगाक्षि, आपस्तम्ब, मनु, वराह आदि आचार्यों के मत में नामकरण संस्कार जन्म से दसवें दिन करना चाहिये । मनु ने लिखा है – नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां चास्य कारयेत् । पुण्यतिथौ मुहुर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते ।। सारसंग्रह में विभिन्न वर्णों के लिये नामकरण का विधान बताते हुये लिखा है – एकादशेऽह्नि विप्राणां क्षत्रियाणां त्रयोदशे । वैश्यानां षोड्शे नाम मासान्ते शूद्रजन्मनाम् ।। अर्थात् ब्रह्मणों का नामकरण जन्म से ग्याहरवें दिन, क्षत्रियों का जन्म से तेरहवें दिन, वैश्यों का जन्म से सोलहवें दिन व शूद्रों का मास के अन्त में करना चाहिये । 2.5.2.3 निष्क्रमण नामकरण संस्कार के उपरान्त छठा संस्कार निष्क्रमण संस्कार होता है । इस संस्कार में शिशु को प्रथम बार घर से बाहर ले जाया जाता है । ‘अथ निष्क्रमणं नाम गृहात् प्रथमनिर्गमः‘ शिशु को घर से बाहर ले जाकर सर्व प्रथम सूर्य दर्शन कराया जाता है । पारस्कर ने लिखा है – ‘सूर्यमुदीक्षयति तच्चक्षुरिति‘ । इस संस्कार को पिता पूरा करता है । आश्वलायन ने लिखा है – शाकुन्ते प्रजयेत् सूक्ते शिशोर्निष्क्रमणे पिता परन्तु मुहुर्त संग्रह के अनुसार यह कर्म माता को करना चाहिये । यथोक्तं – उपनिष्क्रमणे शास्ता मातुलो वा हयेच्छिशुम् । इस संस्कार में निश्चित दिन में गोमय ( गाय के गोबर ) से घर के आंगन को पोत कर माता पिता को शिशु सहित वहां बैठाना चाहिये । तथा उसके उपरान्त कुलदेवता, दिक्पाल, सूर्य, चन्द्र, वासुदेव आदि की पूजा कर ब्राह्मणों को भोजन करवा कर स्वस्तिवाचन कर शकुन्तदेवताक दोनों सुक्तों का जप करना चाहिये । तदुपरान्त वाद्य यन्त्रों के साथ शिशु को घर से बाहर ले जाना चाहिये । 2.5.2.4 अन्नप्राशन इस संस्कार में शिशु को प्रथम बार अन्न खिलाया जाता है । इस संस्कार से पूर्व शिशु माता के दूध पर ही आश्रित होता है । परन्तु छः सात माह के बाद शिशु की देह विकसित हो जाने के कारण माता का दूध पर्याप्त नहीं होता है । अतः उसे कुछ अधिक आहार की आवश्यकता होती है। अतः शिशु के हित के लिये यह संस्कार अपेक्षित होता है । आचार्य सुश्रुत ने भी छः मास के बाद माता के दूध के अतिरिक्त अन्न खिलाने का निर्देश किया है । षण्मासञ्चैनमन्नं प्राश्येल्लघु हितश्च । मनु ने भी छठे माह में या कुल परम्परानुसार अन्नप्राशन का निर्देश किया है – षष्ठेऽन्नप्राशनं यद्वेष्टं मङ्गलं शुभम् । महर्षि वसिष्ठ ने पुरुष व óी भेद से अन्नप्राशन की व्यवस्था कही है । उनके मतानुसार पुरुष शिशु का अन्नप्राशन संस्कार जन्म के छठे मास से समसंखîक मासों में, óी शिशु का अन्नप्राशन संस्कार पांचवे माह से विषम मासों में करना चाहिये । लिखा भी है – युग्मेषु मासेषु च सत्सु पुंसां संवत्सरे वा नियतं शिशूनाम् । अयुग्ममासेषु च कन्यकानां नवान्नसम्प्राशनमिष्टमेतत् ।। इस संस्कार में सर्वप्रथम आभ्युदयिक श्राद्ध किया जाता है। तदुपरान्त यथाविधि होमादि कर अन्न का प्राशन करवाना चाहिये । सभी प्रकार के मधुरादि रसों का विभिन्न प्रकार के अन्नों को एक थाली में परोस कर शिशु को इनका प्राशन करवाना चहिये । 2.5.2.5 चूडाकरण चूडा का अर्थ केशगुच्छ से है । अर्थात् शिखा रखने के लिये जो संस्कार किया जाता है वह चूडाकरण के नाम से जाना जाता है । इस संस्कार का प्रमुख प्रयोजन दीर्घायु, कल्याण व सौन्दर्य की प्राप्ति है । आचार्य चरक ने लिखा है – पापोपशमनं केशनखरोमापमार्जनम् । हर्षलाघवसौभाग्यकरमुत्साहवर्धनम् ।। किन्तु कुछ आचार्यों के मत में इस संस्कार का प्रयोजन बलिदान है । अर्थात् इस संस्कार में केशों को काट कर किसी देवता को समर्पित किया जाता है । पारस्कर, वैखानस, बौधायन, मनु आदि के अनुसार चूडाकरण संस्कार प्रथम या तृतीय वर्ष में करना चाहिये । मनु स्मृति मे लिखा है – चूडाकरणं द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः । प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात् ।। आश्वलायन, वाराह, याज्ञवल्क्य आदि विद्वानों के मत में कुलपरम्परा के अनुसार चुडाकरण संस्कार करने का विधान है । इसी प्रकार चुडाकरण संस्कार यदि तीसरे वर्ष मे किया जाये तो सर्वाेŸाम, छठे व सातवें वर्ष में साधारण, एवं दशम व एकादश वर्ष में निन्द्य माना गया है । नारद ने कहा है – जन्मतस्तु तृतीये च श्रेष्ठमिच्छन्ति पण्डिताः। पञ्चमे सप्तमे वापि जन्मतो मध्यमं भवेत् ।। अधमं गर्भतस्तु स्यात् नवमैकादशेऽपि वा । 2.5.2.6 कर्णवेध इस संस्कार में कानों का वेध किया जाता है । इस संस्कार को करने के दो लाभ हैं । एक तो आभूषणों को पहनना एवं दूसरा यथासम्भव रोगों का निरोध करना। सुश्रुत ने अण्डकोश, आन्त्रवृद्धि के निरोध के लिये कर्णवेध करने का निर्देश किया है । सुश्रुत संहिता में लिखा है – शङ्खोपरि च कर्णान्ते त्यक्त्वा यत्नेन सेवनीम् । व्यत्यासाद्वा शिरां विध्येदान्त्रवृद्धिनिवृŸाये ।। देवल के अनुसार जिस व्यक्ति का कर्णवेध संस्कार नहीं होता है उसके पूर्वजन्म में किये गये सभी पुण्य नष्ट हो जाते हैं । कर्णरन्ध्रे रवेश्छाया न विशेदग्रजन्मनः । तं दृष्ट्वा विलयं यान्ति पुण्यौघाश्च पुरातनाः । शिशु के जन्म से छठे, सातवें, आठवें, या बाहरवें मास में कर्णवेध संस्कार किया जाना चाहिये । एवं पिता को यह संस्कार करना चाहिये । विष्णुधर्माेŸार पुराण के अनुसार भिषक बालक के दक्षिण कर्ण का वेध करे व कन्या के वाम कर्ण का वेध करे । इसी प्राकर सूची का निर्णय करते हुये आचार्य मनु ने कहा है कि क्षत्रियों को सुवर्ण की, ब्राह्मण व वैश्यों को रजत की व शुद्रों को लोहे की सूची धारण करनी चाहिये । सौवर्णी राजपुत्रस्य राजती विप्रवैश्ययोः । शूद्रस्य चायसी सूची मध्यममष्टाङ्गुलिका ।। कर्णवेध संस्कार में सर्वप्रथम पिता विष्णु आदि देवताओं की पूजा करे तथा माता पिता शुभ्र वó धारण कर शिशु को पूर्वाभिमुख बैठाकर उसे मिष्ठान आदि प्रदान करें। तत्पश्चात् क्रम से दक्षिण व वाम कर्ण का वेध करें। उसके उपरान्त ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिये ।